सोमवार, 25 जुलाई 2016

सावन और शिव आराधना

शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव को प्रसन्न करने के उपाय इस प्रकार हैं...

1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।

2. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।

3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।

4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।

यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में बांट देना चाहिए।

शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन-सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से क्या फल मिलता है...

1. बुखार होने पर भगवान शिव को जल चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जल द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।

2. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिला दूध भगवान शिव को चढ़ाएं। 

3. शिवलिंग पर गन्ने का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है। 

4. शिव को गंगा जल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

5. शहद से भगवान शिव का अभिषेक करने से टीबी रोग में आराम मिलता है।

6. यदि शारीरिक रूप से कमजोर कोई व्यक्ति भगवान शिव का अभिषेक गाय के शुद्ध घी से करे तो उसकी कमजोरी दूर हो सकती है।

शिवपुराण के अनुसार जानिए भगवान शिव को कौन-सा फूल चढ़ाने से क्या फल मिलता है...

1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2. भगवान शिव की पूजा चमेली के फूल से करने पर वाहन सुख मिलता है। 

3. अलसी के फूलों से शिव की पूजा करने पर मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है। 

4. शमी वृक्ष के पत्तों से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है। 

5. बेला के फूल से पूजा करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है। 

6. जूही के फूल से भगवान शिव की पूजा करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।

7. कनेर के फूलों से भगवान शिव की पूजा करने से नए वस्त्र मिलते हैं। 

8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।

9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।

10. लाल डंठलवाला धतूरा शिव पूजा में शुभ माना गया है। 

11. दूर्वा से भगवान शिव की पूजा करने पर उम्र बढ़ती है।

इन उपायों से प्रसन्न होते हैं भगवान शिव

1. सावन में रोज 21 बिल्वपत्रों पर चंदन से ऊं नम: शिवाय लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं।

2. अगर आपके घर में किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो सावन में रोज सुबह घर में गोमूत्र का छिड़काव करें तथा गुग्गुल का धूप दें।

3. यदि आपके विवाह में अड़चन आ रही है तो सावन में रोज शिवलिंग पर केसर मिला हुआ दूध चढ़ाएं। इससे जल्दी ही आपके विवाह के योग बन सकते हैं।

4. सावन में रोज नंदी (बैल) को हरा चारा खिलाएं। इससे जीवन में सुख-समृद्धि आएगी और मन प्रसन्न रहेगा।

5. सावन में गरीबों को भोजन कराएं, इससे आपके घर में कभी अन्न की कमी नहीं होगी तथा पितरों की आत्मा को शांति मिलेगी।

6. सावन में रोज सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निपट कर समीप स्थित किसी शिव मंदिर में जाएं और भगवान शिव का जल से अभिषेक करें और उन्हें काले तिल अर्पण करें। इसके बाद मंदिर में कुछ देर बैठकर मन ही मन में ऊं नम: शिवाय मंत्र का जाप करें। इससे मन को शांति मिलेगी।

हर हर महादेव

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

जानिये कैसे शकों के अत्याचार से भारत को मुक्त किया महाराजा विक्रमादित्य ने

ईसा से कई शताब्दी पूर्व भारत भूमि पर एक साम्राज्य था मालव गण। मालव गण की राजधानी थी भारत की प्रसिद्ध नगरी उज्जैन । उज्जैन एक प्राचीन गणतंत्र राज्य था । प्रजा वात्सल्य राजा नाबोवाहन की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र गंधर्वसेन ने "महाराजाधिराज मालवाधिपति"की उपाधि धारण करके मालव गण को राजतन्त्र में बदल दिया ।

उस समय भारत में चार शक शासको का राज्य था। शक राजाओं के भ्रष्ट आचरणों की चर्चाएँ सुनकर गंधर्वसेन भी कामुक व निरंकुश हो गया। एक बार मालव गण की राजधानी में एक जैन साध्वी पधारी। उनके रूप की सुन्दरता की चर्चा के कारण गंधर्व सेन भी उनके दर्शन करने पहुँच गया। साध्वी के रूप ने उन्हें कामांध बना दिया। महाराज ने साध्वी का अपहरण कर लिया तथा साध्वी के साथ जबरदस्ती विवाह कर लिया।

अपनी बहन साध्वी के अपहरण के बाद उनके भाई जैन मुनि कलिकाचार्य ने राष्ट्रद्रोह करके बदले की भावना से शक राजाओं को उज्जैन पर हमला करने के लिए तैयार कर लिया। शक राजाओं ने चारों ओर से आक्रमण करके उज्जैन नगरी को जीत लिया.

शोषद वहाँ का शासक बना दिया गया। गंधर्व सेन साध्वी और अपनी रानी सोम्यादर्शन के साथ विन्ध्याचल के वनों में छुप गये. साध्वी सरस्वती ने महारानी सोम्या से बहुत दुलार पाया तथा साध्वी ने भी गंधर्व सेन को अपना पति स्वीकार कर लिया ।

वनों में निवास करते हुए, सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम भर्तृहरि रक्खा गया. उसके तीन वर्ष पश्चात महारानी सोम्या ने भी एक पुत्र को जन्म दिया.जिसका नाम विक्रम सेन रक्खा गया।
विंध्याचल के वनों में निवास करते हुए एक दिन गंधर्व सेन आखेट को गये, जहाँ वे एक सिंह का शिकार हो गये। वहीं साध्वी सरस्वती भी अपने भाई जैन मुनि कलिकाचार्य के राष्ट्रद्रोह से क्षुब्ध थी।

महाराज की मृत्यु के पश्चात उन्होंने भी अपने पुत्र भर्तृहरि को महारानी को सौंपकर अन्न का त्याग कर दिया। और अपने प्राण त्याग दिए। उसके पश्चात महारानी सोम्या दोनों पुत्रों को लेकर कृष्ण भगवान् की नगरी चली गई, तथा वहाँ पर अज्ञातवास काटने लगी। दोनों राजकुमारों में भर्तृहरि चिंतनशील बालक था, तथा विक्रम में एक असाधारण योद्धा के सभी गुण विद्यमान थे।

अब समय धीरे धीरे समय अपनी काल परिक्रमा पर तेजी से आगे बढने लगा। दोनों राजकुमारों को पता चल चुका था की शको ने उनके पिता को हराकर उज्जैन पर अधिकार कर लिया था, तथा शक दशको से भारतीय जनता पर अत्याचार कर रहे है।

विक्रम जब युवा हुआ तब वह एक सुगठित शरीर का स्वामी व एक महान योद्धा बन चुका था।
धनुषबाण, खडग, असी, त्रिशूल व परशु आदि में उसका कोई सानी नही था. अपनी नेतृत्व करने की क्षमता के कारण उसने एक सैन्य दल भी गठित कर लिया था।

अब समय आ गया था की भारतवर्ष को शकों से छुटकारा दिलाया जाय। वीर विक्रमसेन ने अपने मित्रो को संदेश भेजकर बुला लिया. सभाओं व मंत्रणा के दौर शुरू हो गए। निर्णय लिया गया की ,सर्वप्रथम उज्जैन में जमे शक राज शोशाद व उसके भतीजे खारोस को युद्ध में पराजित करना होगा।

परन्तु एक अड़चन थी कि उज्जैन पर आक्रमण के समय सौराष्ट्र का शकराज भुमक व तक्षशिला का शकराज कुशुलुक शोशाद की सहायता के लिए आयेंगे। विक्रम ने कहा कि शक राजाओं के पास विशाल सेनायें है, संग्राम भयंकर होगा।

तो उसके मित्रो ने उसे आश्वासन दिया कि जब तक आप उज्जैन नगरी को नही जीत लेंगे, तब तक सौराष्ट्र व तक्षशिला की सेनाओं को हम आपके पास फटकने भी न देंगे। विक्रम सेन के इन मित्रों में सौवीर गणराज्य का युवराज प्रधुम्न, कुनिंद गन राज्य का युवराज भद्रबाहु, अमर्गुप्त आदि प्रमुख थे।

अब सर्वप्रथम सेना की संख्या को बढ़ाना व उसको सुदृढ़ करना था। सेना की संख्या बढ़ाने के लिए गावं गावं के शिव मंदिरों में भैरव भक्त के नाम से गावों के युवकों को भर्ती किया जाने लगा। सभी युवकों को त्रिशूल प्रदान किए गए। युवकों को पास के वनों में शस्त्राभ्यास कराया जाने लगा. इस कार्य में वनीय क्षेत्र बहुत सहायता कर रहा था। इतना बड़ा कार्य होने के बाद भी शकों को कानोकान भनक भी नही लगी.

कुछ ही समय में भैरव सैनिकों की संख्या लगभग ५० सहस्त्र हो गई. भारत वर्ष के वर्तमान की हलचल देखकर भारत का भविष्य अपने सुनहरे वर्तमान की कल्पना करने लगा। लगभग दो वर्ष भागदौड़ में बीत गए. इसी बीच विक्रम को एक नया सहयोगी मिल गया अपिलक। अपिलक आन्ध्र के महाराजा शिवमुख का अनुज था। अपिलक को भैरव सेना का सेनापति बना दिया गया। धन की व्यवस्था का भार अमर्गुप्त को सोपा गया। अब जहाँ भारत का भविष्य एक चक्रवर्ती सम्राट के स्वागत के लिए आतुर था, वहीं चारो शक राजा भारतीय जनता का शोषण कर रहे थे और विलासी जीवन में लिप्त थे।

ईशा की प्रथम शताब्दी में महाकुम्भ के अवसर पर सभी भैरव सैनिकों को साधू-संतो के वेश में उज्जैन के सैकडो गावों के मंदिरों में ठहरा दिया गया। प्रत्येक गाँव का मन्दिर मानो शिव के तांडव के लिए भूमि तैयार कर रहा था।

महाकुम्भ का स्नान समाप्त होते ही सैनिकों ने अपना अभियान शुरू कर दिया। भैरव सेना ने उज्जैन व विदिशा को घेर लिया गया। भीषण संग्राम हुआ। विदेशी शकों को बुरी तरह काट डाला गया। उज्जैन का शासक शोषद भाग खड़ा हुआ. तथा मथुरा के शासक का पुत्र खारोश विदिशा के युद्ध में मारा गया। इस समाचार को सुनते ही सौराष्ट्र व मथुरा के शासकों ने उज्जैन पर आक्रमण किया। अब विक्रम के मित्रों की बारी थी, उन्होंने सौराष्ट्र के शासक भुमक को भैरव सेना के साथ राह में ही घेर लिया, तथा उसको बुरी तरह पराजित किया, तथा अपने मित्र को दिया वचन पूरा किया।

मथुरा के शक राजा राज्बुल से विक्रम स्वयं टकरा गया और उसे बंदी बना लिया। आंध्र महाराज सत्कारणी के अनुज अपिलक के नेतृत्व में पूरे मध्य भारत में भैरव सेना ने अपने तांडव से शक सेनाओं को समाप्त कर दिया। विक्रमसेन ने अपने भ्राता भर्तृहरि को उज्जैन का शासक नियुक्त कराया। तीनो शक राजाओं के पराजित होने के बाद तक्षशिला के शक राजा कुशुलुक ने भी विक्रम से संधि कर ली।

मथुरा के शासक की महारानी ने विक्रम की माता सौम्या से मिलकर क्षमा मांगी तथा अपनी पुत्री हंसा के लिए विक्रम का हाथ मांगा। महारानी सौम्या ने उस बंधन को तुंरत स्वीकार कर लिया।

विक्रम के भ्राता भर्तृहरि का मन शासन से अधिक ध्यान व योग में लगता था इसलिए उन्होंने राजपाट त्याग कर सन्यास ले लिया। उज्जैन नगरी के राजकुमार ने पुन: वर्षों पश्चात गणतंत्र की स्थापना की व्यवस्था की परन्तु मित्रों व जनता के आग्रह पर विक्रमसेन को महाराजाधिराज विक्रमादित्य के नाम से सिंहासन पर आसीन होना पडा।

लाखों की संख्या में शकों का यज्ञोपवीत हुआ। शक हिंदू संस्कृति में ऐसे समा गए जैसे एक नदी समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती है। विदेशी शकों के आक्रमणों से भारत मुक्त हुआ तथा हिंदू संस्कृती का प्रसार समस्त विश्व में हुआ।

इसी शक विजय के उपरांत ईशा से ५७ वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक पर "विक्रमी-संवत" की स्थापना हुई। आगे आने वाले कई चक्रवर्ती सम्राटों ने इन्ही सम्राट विक्रमादित्य के नाम की उपाधि धारण की.


अवसाद और युवा पीढ़ी

आज अवसाद अर्थात डिप्रेशन के मामले तेजी से बढ़ते हुए देखे जा रहे हैं विशेष रूप से युवा वर्ग डिप्रेशन का अधिक शिकार हो रहा है क्यों इसका कारण क्या है ? डॉक्टर चिकित्सक कुछ नहीं बोलते उनके पास कोई निष्कर्ष नहीं ट्रीटमेंट के नाम पर नींद की गोली देते हैं क्या नींद की गोली डिप्रेशन का उपचार है ? वस्तुतः यदि देखा जाए तो युवाओं में तेजी से बढ़ते जा रहे डिप्रेशन के क्या कारण है तो आप इस निष्कर्ष पर आएंगे की आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में माता पिता अभिभावक अपने पाल्यों को महंगे स्मार्टफोन बाइक्स और सुख सुविधा के तमाम चीजें तो उपलब्ध करा देते हैं किन्तु अपने बच्चों के पास बैठकर प्यार के दो लम्हे व्यतीत कर लें उनसे बातें कर लें ऐसा वे नहीं कर पाते मनुष्य एक सामजिक प्राणी है जब कोई छोटा बच्चा अपनी आँखें खोलता है तो उसकी पहली शिक्षक होती है उसकी माँ उसका पहला मेंटर होता है उसका पिता किन्तु आज के परिदृश्य में जब हम देखते हैं तो ये परिलक्षित होता है आज आधुनिक गैजेट्स ही बच्चों के अभिभावक की भूमिका में हैं क्योंकी तथाकथित अभिभावक अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति उदासीन हैं या कहें की लापरवाह हैं जब बच्चा अपनी बातें अपनों से साझा नहीं कर पाता है तो वह बाहर की दुनिया के प्रति आकर्षित होता हैं जहाँ उसका सामना अच्छे बुरे हर तरीके के लोगों से होता है अपनी मनःस्थिति को कभी साझा न कर पाने के कारण युवा कुंठा से ग्रसित हो जाते हैं और यही उनके अवसाद का कारण बनता है इसलिए मैं अपने पाठकों से करबद्ध निवेदन करता हूँ आप अपने बच्चों को समय दें उनसे बातें करें उनकी बातें सुनें याद रखें यदि आपके बच्चों और आपके बीच सौहार्दपूर्ण एवम् पारदर्शी स्नेहपूर्ण रिश्ता है तो आपका बच्चा कभी अवसाद का शिकार नहीं होगा उसकी मानसिक मजबूती दूसरे बच्चों से कहीं बेहतर होगी ।  

आशुतोष स्नेहसागर मिश्रा 

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

विचार करें शांति कैसे मिलेगी

अबश्य पढ़े और विचार करे ।।

हमारा भी तो ..पवित्र महीना ...आया था...21 अप्रैल से 21 मई तक उज्जैन महाकुम्भ! !!
करोडो लोग ...आये ..इकट्ठा हुये ..श्रद्धा की डुबकी लगाई...
ईश्वर को याद किया ...दर्शन किये ...
सब कुछ किया ....
लेकिन ... दूसरे धर्म के लोगों ..के प्रति बुरा विचार नही रखा...
बम विस्फोट, करना, कत्लेआम करना, गला रेतना तो दूर की बात....
उज्जैन में ...रामघाट और महाकालेश्वर मन्दिर को जाने वाला रास्ता ...शहर की खजूरवाली मस्जिद, नयापुरा से होकर गुजरता है...
करोडो लोग ...इन इलाकों से गुजरते रहे ...
मुस्लिमो की सारी दुकानें खुली रही ..चलती रही ..
लेकिन कोई अप्रिय घटना नहीं हुई ...
बल्कि इनकी दुकानों पर श्रद्धालुओ की भीड लगी रही ..

और  अब अमरनाथ यात्रा शुरू हो गई , अमरनाथ धाम श्रीनगर से लगभग 135 किलोमीटर दूर है...अमरनाथ की पवित्र गुफा तक पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक बालटाल से और दूसरा पहलगाम से जाता है,  बालटाल से पवित्र गुफा का रास्ता 14 किलोमीटर का है जबकि पहलगाम से 51 किलोमीटर है, यात्री बालटाल से डोमेल, बरारी होते हुए बाबा बर्फानी की पवित्र गुफा तक पहुंचते हैं जबकि पहलगाम वाले यात्री चंदनवाड़ी, पिस्सू टॉप, शेषनाग और पंजतरनी होते हुए पवित्र गुफा तक पहुंचते हैं.....
अभी तक साढ़े तीन लाख से ज्यादा श्रद्धालु अमरनाथ यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं....
अमरनाथ जाने का मार्ग मुस्लिम बाहुल्य हैं लाखो लोग जाएंगे लेकिन कही हिन्दुओ द्वारा कही उत्पात नहीं होता उल्टा रास्ते मैं पढ़ने वाली इनकी दुकानों पर श्रद्धालुओ की भीड लगी रहती हैं जिनसे इनकी जीविका चलती हैं....

वहीं दूसरी ओर....शुक्रवार को 20-25 भाई लोग ..इकट्ठे हो जाये ...
तो...विश्व विजय पे निकल पडते है...और सोचते है कि अब..पूरी दुनिया को हरा रंग के ही घर लौटेगें... और सबसे खास बात इनके पवित्र स्थान मक्का मदीना पर कोई गैर मुस्लिम नहीं जा सकता उसको कई सौ किलोमीटर पहले ही रोक दिया जाता हैं और वहां वकायदा बोर्ड भी लगा हैं यहाँ गैर मुस्लिमो का प्रवेश वर्जित हैं... जबकि हमारे यहाँ अमरनाथ मंदिर का पुजारी भी एक मुस्लिम हैं  !!

ऐसे है हम सनातनी... इसलिए स्वय विचार कीजिये कौन सा धर्म शांति का सन्देश देता हैं...!!

गौत्र एवम् प्रवर

!!!---: गोत्र और प्रवर  :---!!!

अपने को जानिए, अपने गोत्र को जानिए, अपने पूर्वजों को जानिए, अपने ऋषि-वंशजों को जानिए । इसके लिए निम्नलिखित 6 विषयों की जानकारी आवश्यक है । यह हमारी महान् वैदिक परम्परा रही है कि हम सब अपने-अपने गोत्रों को याद रखते हैं । इसके लिए हमारे मनीषियों, ऋषियों ने कितनी अच्छी परम्परा शुरु की थी कि विभिन्न संस्कारों का प्रारम्भ संकल्प-पाठ से कराते थे, जिसके अन्तर्गत अपने पिता, प्रपिता, पितामह, प्रपितामह के साथ-साथ गोत्र, प्रवर, आदि का परिचय भी दिया जाता था । इसमें जन्मभूमि, भारतवर्ष का भी उल्लेख होता था। इसमें सृष्टि के एक-एक पल का गणन होता था और संवत् को भी याद रखा जाता था । यह परम्परा आज भी प्रचलित है, कुछ न्यूनताओं के साथ  ।

गोत्र और प्रवर की आवश्यकता विवाह के समय भी होती है । इसलिए इसे जानना आवश्यक है । इसके अन्तर्गत हम इन पाँच विषयों पर चर्चा करेंगेः---

1) गोत्र
2) प्रवर
3) वेद
4) शाखा
5) सूत्र
6) देवता,

(1.) गोत्रः----

गोत्र का अर्थ है, कि वह कौन से ऋषिकुल का है। या उसका जन्म किस ऋषिकुल में हुआ है। किसी व्यक्ति की वंश परंपरा जहाँ से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता है। हम सभी जानते हैं कि हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान हैं । इस प्रकार से जो जिस गोत्र ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया।

इन गोत्रों के मूल ऋषि – अंगिरा, भृगु, अत्रि, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य, तथा कुशिक थे, और इनके वंश अंगिरस, भार्गव,आत्रेय, काश्यप, वशिष्ठ अगस्त्य, तथा कौशिक हुए। [ इन गोत्रों के अनुसार इकाई को "गण" नाम दिया गया, यह माना गया कि एक गण का व्यक्ति अपने गण में विवाह न कर अन्य गण में करेगा।  इस तरह इन सप्त ऋषियों के पश्चात् उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामों से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ।

गोत्र शब्द का एक अर्थ गो जो पृथ्वी का पर्याय भी है । 'त्र' का अर्थ रक्षा करने वाला भी है। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करने वाले ऋषि से ही है। गो शब्द इंद्रियों का वाचक भी है, ऋषि मुनि अपनी इंद्रियों को वश में कर अन्य प्रजा जनो का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्र कारक कहलाए। ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे,  वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परंपरा पड़ गई।

(2) प्रवरः----

प्रवर का शाब्दिक अर्थ है--श्रेष्ठ । गोत्र और प्रवर का घनिष्ठ सम्बन्ध है । एक ही गोत्र में अनेक ऋषि हुए । वे ऋषि भी अपनी विद्वत्ता और श्रेष्ठता के कारण प्रसिद्ध हो गए । जिस गोत्र में जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो जाता है, उस गोत्र की पहचान उसी व्यक्ति के नाम से प्रचलित हो जाती है । एक सामान्य उदाहरण देखिए---

श्रीराम सूर्यवंश में हुए । इस वंश के प्रथम व्यक्ति सूर्य थे । आगे चलकर इसी वंश में रघु राजा प्रसिद्ध हो गए । तो आगे चलकर इनके नाम से ही रघुवंश या राघव वंश प्रचलित हो गया । इसी प्रकार इक्ष्वाकु भी प्रसिद्ध राजा हुए, तो उनके नाम से भी इस वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश पड गया ।

इसी प्रकार ब्राह्मणों के ऋषि वंश में उदाहरण के साथ मिलान करें । जैसेः---वशिष्ठ ऋषि का वंश । वशिष्ठ के नाम से वशिष्ठ गोत्र चल पडा । अब इसी वंश में वाशिष्ठ, आत्रेय और जातुकर्ण्य ऋषि भी हुए , जो अति प्रसिद्धि को प्राप्त कर गए । अब इस वंश के तीन व्यक्ति अर्थात् तीन मार्ग हुए । इन तीनों के नाम से भी वंश का नाम पड गया । ये यद्यपि पृथक् हो गए, किन्तु इन तीनों का मूल पुरुष वशिष्ठ तो एक ही व्यक्ति है, अतः ये तीनों एक ही वंश के हैं, इसलिए ये तीनों आपस विवाह सम्बन्ध नहीं रख सकते । ये तीनों इस वंश श्रेष्ठ कहलाए, इसलिए ये प्रवर हैं ।

इस प्रकार एक गोत्र में तीन या पाँच प्रवर हो सकते हैं । भरद्वाज गोत्र में पाँच प्रवर हैं, अर्थात् इस गोत्र में पाँच ऋषि बहुत प्रसिद्धि को प्राप्त हो गए, इसलिए इनके नाम से भी गोत्र चल पडा, ये गोत्र ही प्रवर हैं । मूल गोत्र भरद्वाज है और इसके प्रवर ऋषि हुए---आंगिरस्, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, शौङ्ग, शैशिर ।

ये प्रवर तीसरी पीढी की सन्तान हो सकते हैं, या पाँचवी पीढी की । अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्---अष्टाध्यायी--4.1.162 सूत्रार्थ यह है कि पौत्र से लेकर जो सन्तान है, उसकी भी गोत्र संज्ञा होती है । अर्थात् पौत्र की तथा उससे आगे की सन्तानों की गोत्र संज्ञा होती है । इस सूत्र से गोत्र अर्थात् प्रवर की व्यवस्था है ।

इस व्यवस्था से या तो आप कह सकते हैं कि गोत्र और प्रवर एक ही है या फिर यह कह सकते हैं कि थोडा-सा अन्तर है । दोनों एक ही मूल पुरुष से जुडे हुए हैं ।

प्रवर में यह व्यवस्था है कि प्रथम प्रवर गोत्र के ऋषि का होता है, दूसरा प्रवर ऋषि के पुत्र का होता है, तीसरा प्रवर गोत्र के ऋषि पौत्र का होता है । (यह व्यवस्था आधुनिक है । प्राचीन व्यवस्था पाणिनि के सूत्र से ज्ञात होता है, जो ऊपर दिया हुआ है ।)  इस प्रकार प्रवर से उस गोत्र प्रवर्तक ऋषि की तीसरी पीढी और पाँचवी पीढी तक का पता लगता है । हम आपको एक बार और बता देना चाहते हैं कि एक समान गोत्र और प्रवर में विवाह निषिद्ध है ।

गोत्रों के प्रवर

हम यहाँ पर कुछ गोत्र-प्रवर दे रहे हैंः----
(1.) अगस्त्य---इसमें तीन प्रवर हैं---आगसस्त्य, माहेन्द्र, मायोभुव,
(2.) उपमन्यु---वाशिष्ठ, ऐन्द्रप्रमद, आभरद्वसव्य,
(3.) कण्व---आंगिरस्, घौर, काण्व,
(4.) कश्यप---कश्यप, असित, दैवल,
(5.) कात्यायन---वैश्वामित्र, कात्य, कील,
(6.) कुण्डिन---वाशिष्ठ, मैत्रावरुण, कौण्डिन्य,
(7.) कुशिक---वैश्वामित्र, देवरात, औदल,
(8.) कृष्णात्रेय---आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्व,
(9.) कौशिक---वैश्वामित्र, आश्मरथ्य, वाघुल,
(9.) गर्ग---आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, गार्ग्य, शैन्य,
(10.) गौतम---आंगिरस्, औचथ्य, गौतम,
(11.) घृतकौशिक---वैश्वामित्र, कापातरस, घृत,
(12.) चान्द्रायण---आंगिरस, गौरुवीत, सांकृत्य,
(13.) पराशर---वाशिष्ठ, शाक्त्य, पाराशर्य,
(14.) भरद्वाजः---आंगिरस्, बार्हस्पत्य, भारद्वाज, शौङ्ग, शैशिर ।
(15.) भार्गव---भार्गव, च्यावन, आप्नवान्, और्व, जामदग्न्य,
(16.) मौनस---मौनस, भार्ग्व, वीतहव्य,
(17.) वत्स---भार्गव, च्यावन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य,
(18.) वशिष्ठ---वाशिष्ठ, आत्रेय, जातुकर्ण्य,
(19.) शाण्डिल्य---शाण्डिल्य, आसित, दैवल,
(20.) संकृति--आंगिरस्, सांकृत्य, गौरुवीत
(21.) सावर्णि---भार्गव, च्यावन, आप्नवान , और्व, जामदग्न्य ।
विदित रहे कि यह क्रम सरयुपारीण ब्राह्मणों का है ।
आदि

प्रख्यात ब्लॉगर संस्कृत के विद्वान् डॉ प्रवीण जी के सहयोग द्वारा संकलित एवम् सम्पादित द्वारा आशुतोष स्नेहसागर मिश्रा ।
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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम की वंशावली

श्री राम जी की वंशावली
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1 - ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,

2 - मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,

3 - कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,

4 - विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,

5 - वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |

6 - इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,

7 - कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,

8 - विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,

9 - बाण के पुत्र अनरण्य हुए,

10- अनरण्य से पृथु हुए,

11- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,

12- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,

13- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,

14- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,

15- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,

16- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,

17- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,

18- भरत के पुत्र असित हुए,

19- असित के पुत्र सगर हुए,

20- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,

21- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,

22- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,

23- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |

24- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघु कुल भी कहा जाता है |

25- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,

26- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,

27- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,

28- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,

29- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,

30- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,

31- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,

32- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,

33- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,

34- नहुष के पुत्र ययाति हुए,

35- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,

36- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,

37- अज के पुत्र दशरथ हुए,

38- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए |

इस प्रकार ब्रह्मा की  (39) वीं पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ

सोमवार, 4 जुलाई 2016

कथा सार

!!!---: तत्त्व-ज्ञानम् :---!!!
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छान्दोग्योपनिषद् की एक प्रसिद्ध कथा पढिए ।

ग्यारह वर्षीय श्वेतकेतु पुत्र को बुलाकर ऋषि आरुणि ने कहा, "पुत्र आचार्य जी के पास पढने के लिए जाओ । हमारे कुल में आज तक कोई मूर्ख नहीं रहा ।" पुत्र श्वेतकेतु अध्ययन के लिए गुरुकुल गए और 24 वर्ष तक सभी वेदादि शास्त्रों को पढकर वापस घर आए । उसका मानना था कि उसने सभी विद्यायाएँ पढ ली है, उसका विद्या पर अधिकार है । इसलिए वह "सर्वश्रेष्ठ" है । पिता श्वेतकेतु ने देखा कि विद्या से विनम्रता आती है, जबकि आरुण तो अहंकारी हो गया है ।

उन्होंने सोचा कि इसे सबक सिखाना आवश्यक है, अन्यथा यह अनर्थ कर सकता है और अहंकार तो किसी चीज का ठीक नहीं होता ।

पिता ने कहा, "पुत्र, क्या तूने वह विद्या पढी है, जिसके पढ लेने से सब कुछ जान लिया जाता है ।"

पुत्र न अनभिज्ञता प्रकट करते हुए कहा, "पिताजी, आज तक मैंने ऐसी विद्या पढी नहीं । यदि ऐसी विद्या होती तो मेरे आचार्य मुझे अवश्य पढाते ।"

पिता ने कहा, "जानना चाहते हो ।"

पुत्र ने हामी भरी ।

पिता ने कहा, "देखो, सामने एक पीपल का वृक्ष है । उसका एक फल तोडकर ले आओ ।"

पुत्र एक फल तोडकर ले आया ।

पिता ने कहा, "इसे तोडो ।"

पुत्र ने उस फल के दो टुकडे कर दिए ।

पिता ने पूछा, "क्या देखते हो ।"

पुत्र ने कहा, "बीज"

पिता ने कहा, "अब एक बीज हाथ में लेकर तोडो ।"

पुत्र ने तोड दिया ।

पिता ने पूछा, "क्या देखते हो ।"

पुत्र ने कहा, "कुछ भी नहीं ।"

पिता ने कहा, "जो तुम्हे कुछ नहीं दीखता है, उसी में एक महान् विशाल वृक्ष बैठा हुआ है । पुत्र, विश्वास करो, कि इस नन्हें से बीज से ही इतना विशाल वृक्ष बनता है । यह दीखता नहीं, किन्तु है और बहुत विशाल है ।"

दूध में घी कहीं नहीं दीखता, किन्तु यदि उसे गरम कर दिया जाए, विलो दिया जाए, तो मक्खन दिखेगा और उसे गरम कर दिया जाए, तो घी अलग हो जाएगा ।

यदि दूध में घी नहीं दीखता तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उसमें घी नहीं है ।

पिता ने कहा, "पुत्र एक मिट्टी के पात्र में जल लो और उसमें नमक घोल दो । अब बताओ कि नमक दीखता है ।"

पुत्र ने कहा, "नहीं ।"

पिता ने कहा, "नमक कहाँ गया ।"

फिर पिता ने कहा कि इस जल का आचमन करो ।"

पुत्र ने आचमन किया और बताया कि यह जल नमकीन है ।

पिता बोले, "जिस तरह नमक पूरी तरह से जल में घुल गया और सारे जल में मिल गया । उसी तरह हर पदार्थ में वह "सत्" तत्त्व व्यापक है । उस तत्त्व को जानने का प्रयत्न करो ।"

जिस तरह एक सूक्ष्म बीज में वट जैसे वृक्ष विद्यमान है, उसी तरह परमात्मा भी सर्वत्र विद्यमान है । आरुणि विश्वास करो कि वही तत्त्व है, वही सत् है, वही तुम हो "तत्त्वमसि"

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!!मृत्यु का रहस्य !!

भूमिका
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कहते हैं मौत के बाद का जीवन किसी ने नहीं देखा। इसलिए मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। इस विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है। यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

परिचय
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प्राचीन धर्मशास्त्र कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य बताए गए हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु से जुड़े संवाद हैं। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है।

प्रसंग के मुताबिक ऋषि वाजश्रवस (उद्दालक) नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने "विश्वजीत" नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत ही उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।

पिता द्वारा पुत्र को मृत्यु को दान
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जीवन से दुःख को विदा करना है तो एक तरीका ये भी है :---  बड़ा पाप मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि आप मुझे किसे देंगे ? उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना। उसने वही सवाल बार-बार पूछा  इससे क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।

मृत्यु के बाद क्या होता है
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यम के यहां पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है। फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटा रहा। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता को पिता की आज्ञा का पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा।

तीन वरदान
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तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की। साथ ही, उसके बदले नचिकेता को कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया।

"शतायुषः पुत्रपौत्रान्वृणीष्व बहून्पशून्हस्तिहिरण्यमश्वान् ।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ।।"
(कठौपनिषद्---1.23)

नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।

क्या है आत्मा का स्वरूप ?
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यमदेव के मुताबिक शरीर का नाश होने के साथ आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से कोई लेना-देना नहीं है। यह अनंत, अनादि और दोष रहित है। इसका न कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न ये मरती है। 

"न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोSयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।"
(कठोपनिषद्--2.18)

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन ?
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मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है। अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी ओम् का ध्यान और चिंतन करता है। वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानि जन्म-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।

"पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः ।
अनुष्ठाय शोचति विमुक्तश्च विमुच्यते, एतद्वै तत् ।।"
(कठोपनिषद्--5.1)

क्या आत्मा मरती या मारती है ?
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वे लोग जो आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजर अंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।

"हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतौ नाSयं हन्ति न हन्यते ।।"
(कठोपनिषद्--2.19)

क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम ?
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पर्वत की ऊँची चोटियों पर बरसा हुआ पानी जैसे पर्वत के भिन्न-भिन्न भागों में नाले बनकर दौडने लगते हैं, एक ही पानी अनेक धाराओं में बह निकलता है और लोग समझते हैं कि ये जल एक नहीं अनेक हैं, इस प्रकार इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न धर्मों को देखकर मनुष्य समझने लगता है कि संसार में एकता नहीं, अनेकता है और उस अनेकता को पाने के लिए उसके पीछे दौडने लगता है ।

"यथोदेकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति ।
एवं धर्मान्पृथक् पश्यंस्तानेवाSनुविधावति ।।"
(कठोपनिषद्---4.14)

  जैसे शुद्ध जल को शुद्ध जल में डाल दें, तो वह शुद्ध रहता है, अशुद्ध में डाल दें, तो अशुद्ध हो जाता है, इसी प्रकार शुद्ध आत्मा शुद्ध-स्वरूप परमात्मा के साथ मिल जाय, तो शुद्ध-स्वरूप हो जाता है, अशुद्ध संसार में मिल जाय, तो अशुद्ध-स्वरूप हो जाता है । हे गौतम ! आत्मा की ऐसी ही गति है ।।

"यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति ।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ।।"
(कठोपनिषद्----4.15)

कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं ?
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ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।

आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है ?
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एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है। उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है। यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है। हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है।

"अस्य विस्रंसमानस्य शरीरस्थस्य देहिनः ।
देहाद्विमुच्यमानस्य किमत्र परिशिष्यते, एतद्वै तत् ।।"
(कठोपनिषद्---5.4)

मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन-सी योनियां मिलती हैं ?
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यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं। वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं।

"योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येSनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ।।"
(कठोपनिषद्---5.7)