मुसलमानों का तीर्थ है- काबा। काबा में मुहम्मद के वक्त तक तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थी। और हर दिन की एक अलग मूर्ति थी।
वह तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटा दी गयी, फेंक दी गई। लेकिन जो केंद्रीय पत्थर था मूर्तियों का, जो मंदिर को केंद्र था, वह नहीं हटाया गया। तो काबा मुसलमानों से बहुत ज्यादा पुरानी जगह है। मुसलमानों की तो उम्र बहुत लंबी नहीं है, मात्र चौदह सौ वर्ष।
लेकिन काबा लाखों वर्ष पुराना पत्थर है। और भी दूसरे एक मजे की बात है कि वह पत्थर जमीन का नहीं है। एक ही दृष्टिकोण था हमारे पास कि वह उल्कापात में गिरा हुआ किसी दुसरे ग्रह का पत्थर है।
अगर कभी कोई चाँद पर कोई भी जीवन विकसित हुआ, या किसी और ग्रह से चाँद पर पहुंचा, और वह चीजें मिलेंगी, तो उनके लिए भी कठिनाई होगी कि वे कहां से आयी है ? उनके लिए भी कठिनाई होगी।
काबा का जो पत्थर है वह सिर्फ उल्कापात में गिरा हुआ पत्थर नहीं है। वह पत्थर पृथ्वी पर किन्हीं और ग्रहों के यात्रियों द्वारा छोड़ा गया पत्थर है। और उस पत्थर के माध्यम से उस ग्रह के यात्रियों से संबंध स्थापित किए जा सकते थे। लेकिन पीछे सिर्फ उसकी पूजा रह गयी। उसका पूरा विज्ञान खो गया, क्योंकि उससे संबंध के सब सूत्र खो गए।
आज से साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व अन्तिम अवतार मुहम्मद ने कहा था कि हज्रे अस्वद (काला पत्थर) स्वर्ग से उतरा है (तिर्मिज़ी) और आज विज्ञान ने भी खोज करके सिद्ध कर दिया कि वास्तव में यह पत्थर किसी अन्य ग्रह का है, पृथ्वी का नहीं ।
इस खोज का सिहरा ब्रीटेन के एक वैज्ञानिक रिचर्ड डिबर्टन के सर जाता है जो स्वयं को मुस्लिम सिद्ध करते हुए काबा का दर्शन करने के लिए मक्का आया, वह अरबी भाषा जानता था । जब मक्का पहुंचा तो काबा में दाखिल हुआ और हज्रे अस्वद से एक टुकड़ा प्रप्त करने में सफल हो गया। उसे अपने साथ लंदन लाया और ज्यूलोजी की लिबार्ट्री में उस पर तजर्बा शुरू कर दिया।
खोज के बाद इस परिणाम पर पहुंचा कि हज्रे अस्वद धरती के पत्थरों में से कोई पत्थर नहीं बल्कि दूर किसी ग्रह से उतरा हुआ पत्थर है। और उसने अपनी पुस्तक ( मक्का और मदीना की यात्रा) में इस तथ्य को स्पष्ट किया। यह पुस्तक 1956 में अंग्रेजी भाषा में लंदन से प्रकाशित हुई।
रजनीश ओशो
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